गुरुवार, 16 नवंबर 2023

नामुमकिन नहीं है


मैं बूंद बूंद बढ़ती हूं 
वो दरिया-दरिया बहता है

मैं मिट जाती हूं मिट्टी में
वो पत्थर काट कर चलता है

मुझे सोंख लेती है सिसकियां भी 
वो गरज कर विकराल हो जाता है

मैं धंस-धंस कर सरकती रहती हूं
वो चांद छूने को मचलता है

मैं उतरती हूं तह में सागर के
वो आकर सागर में गिर जाता है

नामुमकिन नहीं है 
सागर में मिलना हमारा

मैं बूंद-बूंद उतरती हूं
तुम दरिया-दरिया बढ आओ

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कविता मुकेश जी।
    विरोधाभास जितने भी हो, पर कहीं न कहीं संगम स्थल तो जरूर होता है, सचमुच नामुमकिन नहीं है अगर ठान लो....

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    1. कविता से कहीं बेहतर आपकी टिप्पणी है...कविता के मर्म को महसूसने के लिए आपका साधुवाद🙏

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  2. अहम् और समर्पण के बीच चल रहे निरंतर संघर्ष को दर्शाती यह कविता दिल को छू गई। सच के गर्भ में पहुंचकर अहम् भी क्षत विक्षत होकर समर्पण के आगे नतमस्तक होता है और तब उनके एकाकार होना की संभावना जागृत होती है।

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