बौखनाग
कर्मपथ पर बढ़ रहे
थे
पर्वतों के बोझ
को वो
पाताल में भी ढो
रहे थे
कोख में धरती के
वो
सांस-सांस जी रहे
थे
....
बेधने जब पर्वतों
को
लौह दैत्य गरज
रहे थे
टोह में एक सांस
की
टकटक सब देख रहे
थे
श्वेत अश्रू धार
से
देवता भी पसीज
रहे थे
......
खोल दी जब आंख
उसने
मशीन दैत्य सब
ढेर हुए
एक राह बंद किए
दूसरे फिर खोल
दिए
उतर गए सुरंग में
स्वयं
और
श्रमिकों के साथ
प्रकट हुए
बौखनाग देवता की
जय !
श्रमिकों को समर्पित यह कविता बेहतरीन है। यह एक ऐसी अद्भुत घटना साबित हुई जिसने हमें न सिर्फ विस्मित किया बल्कि महत्वपूर्ण सबक भी दे गया - संघर्ष कितना भी कठिन हो, चुनौतियां कितनी भी बड़ी क्यों न हो यदि आपने जिजीविषा को जाग्रत रखा और आत्मबल को सुदृढ़ कर लिया तो फिर आपके सफर का हासिल चमत्कारी बनाने के लिए ईश्वर स्वयं खड़े हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंश्रमिकों की कर्मठता और लौह मशीनों के आगे इंसानी हाथों की सक्षमता को एक बार फिर साबित करती हुई बेहतरीन कविता....
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जवाब देंहटाएंLike always, this is contemporary theme expressed through wonderful range of words interwoven with emotions.. Fantastic writing ✨✨
ईश्वर और खुद पर यकीन हो तो असंभव कुछ भी नहीं। जय श्री राम 🙏
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