मंगलवार, 18 अक्टूबर 2022

जठराग्नि

जठराग्नि

अंतड़ियां जल रही है

सांसें धुआं 

जुबान रेत हैं

आंखें दरिया

घिरा है आग से

लहक है

चारों ओर

फिर भी जिंदा है

भूख 

पेट में 

बनकर प्रह्लाद 

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रोशनी

खुद ही माटी हैं

खुद ही कुम्हार

खुद ही दीया हैं

खुद ही बाजार

खुद ही बिकना है

खुद ही खरीददार

रोशनी व्यापार है

जलना है हर बार

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