घुल जाऊं तो कांच हूं
टकराऊं तो चट्टान
मैं रेत हूं
रिसता हूं तो, समय बदल देता हूं
नहर, झील, सागर से भी
नहीं बुझती प्यास मेरी
नदी की कोख से
निकल कर भी प्यासा हूं
मैं रेत हूं
मैं सिर्फ अश्क पीता हूं
मुझमें तुम अपनी पहचान मत ढूंढ़ों
समय पर अपने पांवों के निशान मत ढूंढ़ो
बहुत दूर तक पांव भी चलते नहीं साथ में
तुम रेत पर अपने सफर का मकां मत ढूंढ़ों
रेत की आंखों में आज की चमक होती है
वो पीठ पर इतिहास का बोझ नहीं ढोते
आंधी, तुफान, बवंडर का डेरा है रेत में
मुट्ठी में रेत, इसीलिए कभी कैद नहीं होते
बहुत खूब👌👌👌
जवाब देंहटाएंसतह की शांति कितनी चालाकी से अंदर के बवंडर को छुपा लेती है। तभी तो अपने अंदर आंधी तूफान समेटे रेत की सतह पर कोई निशान नहीं टिकता। बहुत अच्छी कविता मुकेश जी।
जवाब देंहटाएंबेहद खुबसूरत कविता हैं ये सर, 💐
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति
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