शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

मैं रेत हूं

घुल जाऊं तो कांच हूं

टकराऊं तो चट्टान

मैं रेत हूं 

रिसता हूं तो, समय बदल देता हूं


नहर, झील, सागर से भी

नहीं बुझती प्यास मेरी

नदी की कोख से 

निकल कर भी प्यासा हूं 

मैं रेत हूं

मैं सिर्फ अश्क पीता हूं


मुझमें तुम अपनी पहचान मत ढूंढ़ों

समय पर अपने पांवों के निशान मत ढूंढ़ो

बहुत दूर तक पांव भी चलते नहीं साथ में

तुम रेत पर अपने सफर का मकां मत ढूंढ़ों


रेत की आंखों में आज की चमक होती है

वो पीठ पर इतिहास का बोझ नहीं ढोते

आंधी, तुफान, बवंडर का डेरा है रेत में

मुट्ठी में रेत, इसीलिए कभी कैद नहीं होते






4 टिप्‍पणियां:

  1. सतह की शांति कितनी चालाकी से अंदर के बवंडर को छुपा लेती है। तभी तो अपने अंदर आंधी तूफान समेटे रेत की सतह पर कोई निशान नहीं टिकता। बहुत अच्छी कविता मुकेश जी।

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  2. बेहद खुबसूरत कविता हैं ये सर, 💐

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