बने गठबंधन बदल विरोधी कानून
महाराष्ट्र में चल रहे सियासी घमासान में जीत चाहे किसी की भी हो...लेकिन हार लोकतंत्र की तय है। गठबंधन राजनीति के दौर में महाराष्ट्र जैसे हालात कोई पहली बार पैदा नहीं हुए हैं। महाराष्ट्र से मिलते जुलते हालात हाल ही में कर्नाटक और गोवा में भी पैदा हुए थे। गोवा में भी रात के करीब 2 बजे डाॅ प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाई गई थी। महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में क्या हुआ, जो हुआ वो सही हुआ या गलत हुआ, किसने सही किया, किसने गलत, बजाय इस बहस में पड़ने के हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि कौन से ऐसे उपाय किए जाए ताकि आगे से इस तरह के हालात ही पैदा ना हो, जिससे लोकतंत्र को शर्मिंदगी महसूस हो। 1985 में दल बदल विरोधी कानून आने से पहले हालात और भी बदतर थे लेकिन कानून आने के बाद से हालात बदले। विधायकों और सांसदो की जो खुलेआम बोली लगती थी उस पर विराम लगा। लेकिन इस कानून से भी खरीद फरोख़्त पर पूरी तरह से लगाम नहीं लग सकी। शुरूआत में तो लगा कि ये कानून कारगर है लेकिन वक्त के साथ-साथ इसमें भी संशोधन की जरूरत महसूस की जाने लगी है। दल बदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के अकेले विधायक या सांसद तो अपनी निष्ठा नहीं बदल सकते थे लेकिन बगावत करने वालों की संख्या यदि पार्टी के कुल सांसदों या विधायकों के दो तिहाई है तो फिर बगावत वैध होगी। यानि अकेले बगावत करने वालों पर तो पाबंदी लगा दी गई लेकिन समूह में दल बदल की छूट जारी रही । आज कानून बनने के तीन दशक बाद इसमें संशोधन की जरूरत महसूस की जाने लगी है। गठबंधन राजनीति के दौर में जब चुनाव में मुकाबला मुख्यतः दलों के बीच ना हो कर गठबंधनों के बीच हो रहे हैं तो फिर गठबंधन की गांठ को मजबूत करने के लिए कानून क्यों नहीं बने ? समय आ गया है कि ‘गठबंधन बदल विरोधी‘ कानून भी बना लिया जाए। गठबंधन की गांठ अभी तक नैतिकता के आधार पर ही टिकी रही है, लेकिन सत्तालोलुप पार्टियों के लिए नैतिकता का कोई मतलब रह नहीं गया है। इसलिए गठबंधन की गांठ को नैतिकता की बजाय कानून की मजबूती देना जरूरी हो गया है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वो दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र से ‘लोक‘ का लोप हो जाए और हम सब बस एक बेजान तंत्र का हिस्सा भर बन कर रह जाएं। अब समय आ गया है कि संसद, दल बदल विरोधी कानून में संशोधन कर गठबंधन को भी इसके दायरे लाए और कम से कम चुनाव से पहले हुए गठबंधन से पार्टी के बाहर निकलने के सारे रास्तों को बंद करे ताकि जनता के मताधिकार के साथ धोखा नहीं हो वो अपने आप को ठगा हुआ नहीं महसूस करे। समय के साथ-साथ लोगों की सोच भी बदल रही है। पहले लोग प्रत्याशी को वोट देते थे, फिर पार्टी को देने लगे और अब गठबंधन को दे रहे हैं। और यदि पार्टियां चुनाव परिणाम आने के बाद गठबंधन बदलती रहेगी तो फिर जनता की पसंद या नापसंद का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। मेरे हिसाब से संविधान का सबसे खूबसूरत हिस्सा, संविधान को संशोधन करने का अधिकार देने वाला हिस्सा है। संविधान के इसी हिस्से ने संविधान की प्रासंगिकता हर काल में बनाए रखा है । सरकार को चाहिए कि वो अपने तात्कालिक फायदे नुकसान से उपर उठते हुए दल बदल विरोधी कानून में संशोंधन कर पार्टियों को चुनाव पूर्व हुए गठबंधन के प्रति भी जिम्मेदार बनाए ताकि लोकतंत्र मजबूत हो और फिर से महाराष्ट्र जैसी स्थिति पैदा न हो।
Well thought analysis
जवाब देंहटाएंThe analysis is spot on. However, loopholes in legislations are exploited by all & sundry. It is least expected that anything of this sort will happen in near future..
जवाब देंहटाएंWe are waiting for your next masterpiece..
जवाब देंहटाएंSure...
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंI totally agree on this. While it should be ok to form post poll alliance in an event of no clear majority, any pre poll alliance should not be allowed to change.
जवाब देंहटाएंThank you gaurav for endorsing idea...keep reading
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