टी-पैंट…..
कॉलेज के शुरूआती दिनों में बाबूजी
पजाम-कुर्ता ही पहना करते थे। लेनिक सहरसा
कॉलेज में उनके कुछ मित्र फूल पैंट पहनने लगे थे। बाबूजी को भी फूल पैंट पहनने का
शौक जगा और उन्होंने दादा जी से कह कर पैंट सिलवाई। वो भी झक सफेद...सफेद बाबू जी
का पसंदीदा रंग था । पहली बार पैंट पहनने में बाबूजी को झिझक हुई लेकिन फिर वो उसे
पहनने लगे। सफेद रंग पहले दिन जितना चमकदार लगता है, दूसरे-तीसरे दिन
उसकी चमक उतनी तेज नहीं रहती । सफेदी बनाए रखना कोई बच्चों का खेल नहीं था लेकिन
बाबूजी को इसमें महारत हासिल थी। सफेद पैंट पहनने के बाद कहां बैठना है और कहां
नहीं उसका बाबूजी पूरा ख्याल रखते थे। लेकिन चाय पीने के शौकीन बाबूजी की पैंट पर
एक दिन चाय की एक बूंद गिर गई। फिर क्या था, बाबूजी और उनकी
पूरी मित्र-मंडली चाय के उस दाग से पैंट को बेदाग करने की मुहिम में जुट गया। कोई
चश्मा छाप गोला साबूल की टिकया से दाग वाली जगह को बार-बार साफ करने की सलाह दे
रहा था तो कोई टिकिया को रात भर दाग वाली जगह पर छोड़ देने की सलाह दे रहा था। किसी
ने नींबू के रूप में हुकमी इलाज का भी इजाद किया लेकिन सब बेकार। दाग था जो हटने
का नाम नहीं ले रहा था। चिंतन-मनन में दो दिनों का वक्त निकल गया दाग हटाने की
चिंता में बाबूजी और उनकी मित्र मंडली दो दिनों तक कॉलेज भी नहीं गए। तीसरे दिन
सुबह चाय की दुकान पर दाग की चिंता में डूबे बाबूजी...बार-बार चुल्हे पर रखे बड़े
से बर्तन में उबल रही चाय को देखे जा रहे थे। फिर अपनी चाय खत्म करने के बाद अचानक
उन्होंने कहा कि अब दाग को हटा के रहुंगा। तुम सब अब उस दाग को ढुंढ़ते रह जाओगे।
चलो....फिर सभी एक साथ कमरे पर गये और पांच मिनट के भीतर पैंट लेकर वापस दुकान पर
आ गए ।
दुकानवाले से कहा चाय बनाने का जो सबसे
बड़ा बर्तन है उसमें
पूरी चाय बनाओं...और चीनी छोड़ के उसमे बाकी सबकुछ डालो... चारों दोस्तों की कही बातों को
दुकानवाला ऐसे फॉलो कर रहा था जैसे सिपाही अपने कमांडर के आदेश का पालन करता है। फिर
जल्द ही चाय उबलने लगी, वो
बन कर तैयार हो चुकी थी। दुकानवाला उसे केतली में ट्रांसफर करने की सोच ही रहा था
कि बाबूजी ने पेपर से पैंट को निकाला और चाय के बर्तन में डुबो दिया, दुकानवाला इससे पहले की कुछ बोल पाता
मंत्रमंडली की तरफ से उसे चुप रहने का इशारा किया गया और बेचारे के पास सिवाय आदेश
पालना के कोई उपाय नहीं था। फिर करीब 10 मिनट के बाद पैंट को चाय के बर्तन से
निकाला गया। अब तक झक सफेद पैंट अपना रंग बदल चुका था और ढुंढने पर भी वो दाग कही
दिखाई नहीं दे रहा था। फिर पैंट को पॉलिथीन में डाल कर कमरे पर लाया गया...सभी ने
मिल कर पैंट को साफ किया । सुबह सुखने के बाद बाबूजी का झक सफेद पैंट, टी-पैंट बन चुका था। बाबूजी टी-पैंट
पहनकर कॉलेज जाने लगे। जिन्हें कहानी पता नहीं थी वो टी-पैंट को बाबूजी का नया
पैंट समझ रहे थे।
रोचक !!
जवाब देंहटाएंएक काल्पनिक घटना का रोचक वर्णन जिसे पढ़कर अनायास ही मेरे मन ने इसे हमारे वर्तमान सामाजिक परिवेश से जोॾ लिया। सरल शब्दों में अपनी बात पाठक तक पहुंचाने की आपकी कला सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह! ये है पीयूष पांडेय टाइप का लेखन। साधारण बात, जो सबको पता है बस कभी वैसे सोचा नही । टाइटल तो और भी जबरदस्त है टी-पैंट
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी...
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