रविवार, 19 जनवरी 2025

आकाश कुम्भ


वो जानता है मुझको पर उसे मैं जानता नहीं हूं 

यही शिकायत जमाने को मुझसे हमेशा रही है 


जो करते हैं दावा जानने का सबकुछ

आईना भी उनको पहचानता नहीं है


आते हैं जाते हॅैं डूबते हैं साथ में

लेकिन कहानी सभी की अलग है


अज्ञानियों का अबूझ मेला है कुम्भ

यहां किसी को भी कोई जानता नहीं है


जिन्हें ढूंढने संगम में लगाते हो डुबकी

उन्हीं का तो कुम्भ लगा है आकाश में


वो मेरे हैं मैं उनका हूं 

ये भी तो हर कोई जानता नहीं हैं 




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