बुधवार, 24 अप्रैल 2024

माधव तुम अपराधी हो...

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दिनकर के सवाल 


माधव तुम अपराधी हो

राधेय के तुम घाती हो


अर्जुन की खातिर माधव तुमने

राधेय की बलि चढ़ाई है


पार्थ मोह में अंधे हो, तुमने

दिनकर की ज्वाला भड़काई है


क्या दोष था, मेरे कर्ण का जो

न दिया तुमने उसे अवसर समान 


साजिश केवल कर्ण से क्यों ?

दिनकर का क्यों कुछ मोल नहीं ?


मेरी शपथ उठाते हो

मेरे पुत्र पर बाण चलाते हो !


माना मेरा कोई मोल नहीं

पर अनमोल थे कुंती पुत्र सभी


वह भी तो कुंती पुत्र ही था 

फिर भी तुमको प्रिय न था !


माना अर्जुन तुम्हें प्यारा था

पर कर्ण ने क्या बिगाड़ा था


बिना दोष हरे राधेय के प्राण 

दिया अजुर्न को भी अपयश समान


था अर्जुन का नहीं दोष कोई 

वह लड़ कर जीतना चाहता था


हे त्रिकालदर्शी माधव तुमको,पर

हार, पार्थ का स्वीकार न था 


था संदेह तुम्हें, अर्जुन की वीरता पर

रच दिया इसलिए प्रपंच प्रबल


अगर नीति पर तुम चले होते 

न प्राण राधेय के हरे होते


समर से पहले राधेय के

न कवच कुंडल छीने होते 


छीना पहले कवच-बाण,फिर

छोड़ दिया रण में, अनाथ समान


इतने में भी, जी नहीं भरा 

तो दिया शकट धरती में धंसा


निहत्थे नंगे सीने पर फिर 

बेध दिए अर्जुन के बाण


धर्म-अधर्म, नीति-अनीति,

ये शब्द हैं सब कूटनीति के


सच तो केवल वह होता है 

जो वीर रक्त से लिखते हैं


नीति-अनीति न समझाओ मुझे

न धर्म-अधर्म की बात करो मुझसे 


माधव तुम तो बतलाओ बस 

कर्ण की हत्या में धर्म था क्या ?


मित्रता के रिश्ते पर माधव

क्यों रिश्ता रक्त का भारी है ?


मित्रता पाप यदि है तो, क्यों

पार्थ से मोह कोई दोष नहीं !


जहां ज्ञान गीता का दिया तुमने

उसी धरा पर पाप किया तुमने


यदि मृत्यु, दंड है मित्रता का 

तो मोह का क्यों, कोई दंड नहीं !


यह कैसा विधान लिखा तुमने

जो मित्रता को पाप बताता है


मोह पाश में बंधे मायावी को

निश्छल, निष्कलंक दर्शाता है


सोचो, क्या होता उस क्षण को

जो धरा पर मैं उतर आता


पिता के अश्रु ज्वाला से

सब भस्म वहीं पर हो जाता


न बचते पांडव और कौरव

माधव को भी राख मैं कर देता 


न जानते लोग महाभारत को

न गीता का ज्ञान समझ पाते


ब्रह्मा का लिखा भी मिट जाता

कुरूक्षेत्र में प्रलय ही हो जाता


राधेय के रक्त से सन कर जब

मिट्टी, कुरूक्षेत्र की धन्य हुई


उससे पहले, रणभूमि में तुमने

धर्म की चिता जलाई है


जब तुमने ठान लिया ही था

तो प्राण कर्ण के जाना ही था


फिर, अर्जुन को विजयी बनाने को

साजिश को धर्म ठहराने को


रच दी लीला लीलने की

और रख दी नींव नये युग की 


भाई ने भाई को मार दिया

न बचा रिश्ते में रक्त जरा


माधव तुमको, ये न करना था

द्वापर में कलयुग न जीना था


पिता के सामने बेबस बना

पुत्र का वध न करना था


कर देते ओट बादल का जरा तो

छा जाता अंधेरा, क्षण भर को वहां


फिर कर लेते मनमानी तुम

मैं दोष अंधेरे पर मढ़ देता


न लगती कालिख कलंक की तुम्हें

अंधेरे में तुम भी छुप जाते


लिखा जाता इतिहास, जब उजाले में 

तो नाम तुम्हारा मिट जाता


लेकिन इतिहास बदल न सका

और नाम तुम्हारा अमिट रहा


माधव तुम अपराधी हो...

राधेय के तुम घाती हो

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माधव का जवाब


न कर्ण से घात किया मैंने

न अर्जुन ने प्राण हरे उसके


था प्रबल प्रतापी राधेय मेरा

सूर्यवंशी  तेज था रग-रग में 


पर लिखा था जो, वो होना था

सूर्यपुत्र के तेज को, ढलना था


अधर्म के साथ खड़े होने का

भुगतान प्राणों से करना था


धरा पर अधर्म के साथ है जो

वह बोझ है धरती पर भारी 


अभयदान राधेय को यदि दे देता

फिर धरती को कैसे माता कहता !


धरती से पाप मिटाने को 

हे दिनकर मैं तो हूं विवश 


फिर भी सद्मार्ग दिखाने को 

राधेय संग बात बढ़ाई थी


हाथ पकड़ कर राधेय के

अपने घर की राह दिखाई थी 


धर दिया था सिर पर पांडव मुकुट 

पर, मोल मुकुट का वह समझ न सका


दुर्योधन के प्रेम में अंधा हो 

पांडव मुकुट को बोझ कहा


न रख सका मान वह ममता का 

दिया कुंती को भी वचन, श्राप समान 


भाई के रक्त के प्यासों को 

अपना रक्त बेमोल दिया


क्यों दानवीर ने दुर्योधन से 

राज अंग का दान लिया !


पांच ग्राम पांडवों को जो दे न सके

क्यों दे दिया उसने प्रदेश दान !


दान भाव में छुपे कुटिल भेद को 

क्यों समझ न सके दानवीर महान !


शकुनि के बिछाये चौसर में

फंस गए कर्ण, अभिमन्यु समान 


न समझ सके शकुनि के छल को

दुर्योधन की चाल न पहचानी


वह कहता था राधेय को मित्र

मगर, मित्र न उसे समझता था 


राधेय के पराक्रमी भुजा को उसने

मित्रता की मुद्रा से खरीदा था 


हे दिनकर क्या यह भी दोष मेरा

जो मित्र पाश में बंधा था वो


मैंने तो सभी पांडवों के 

जीने की राह बनाई थी


पर कुंती को दिए वचन से 

राधेय ने दुविधा  बढ़ाई थी


सभी पांडव पुत्र थे प्रिय मुझे 

पर करना था कठिन चयन मुझे 


हे दिनकर ! तुम ही बतालाओ

धर्म स्थापना के इस महाभारत में


मैं किसके साथ खड़ा होऊंऔर

किससे विलग मैं हो जाऊं 


धर्म है क्या और अधर्म क्या ?

था राधेय को सब ज्ञात मगर


धर्म पर प्रत्यंचा ताने वह

अधर्म के साथ अटल रहा


हे दिनकर आप तो ज्ञाता हो

हर प्राणी के प्राण दाता हो


युग-युग से प्राणियों के सुख-दुख

के प्रत्यक्ष प्रामाणिक दृष्टा हो


तुम पिता नहीं केवल राधेय के

हर जीव में जीवन है तुमसे


शुरु  होती हर कहानी तुमसे

तुममे ही अंत हो जाता है


फिर भी बतलाता हूं तुझको, क्यों

किया था न बादल का ओट जरा


यदि ओट बादल का मैं कर देता 

तो अंधेरे में अधर्म विजयी होता


दिवा को रात्रि करने का 

दोष मेघराज के सिर होता


धर्म-अधर्म के महाभारत में

अन्याय धर्म के साथ होता


राधेय के सीने पर दिनकर 

फिर भी अर्जुन के बाण चलते 


दिनकर के नहीं देखने भर से

सृष्टि का लिखा नहीं मिट जाता


बादल के बीच में आने से

महाभारत तो नहीं रूक जाता


अर्जुन के हाथों मुक्त हो कर 

राधेय न दिनकर को प्राप्त होते  


चलती सांसे अधर्म के साथ

पर मुक्ति उसे न मिल पाती


तुम बेबस ताकते रहते बस

मुक्ति की राह न सुझा पाते


कुछ परे नहीं है दृष्टि से तेरे 

जान के भी क्यों अनजान हो तुम


फिर भी माधव यदि दोषी है

तो चाहे जो वह सजा दे दो


अगर यही लिखा है सृष्टि ने, 

तो यह दोष भी अपने सिर लेंगे


हे दिनकर मैं अपराधी हूं

तेरे राधेय का मैं घाती हूं..........................

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7 टिप्‍पणियां:

  1. महाभारत की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होती, न ही कभी खत्म होगी। इतने गूढ़ विषय को इतनी सरलता और इतनी गहराई से पाठकों के सामने परोस देना, सचमुच कमाल है आपकी लेखनी। जितनी प्रशंसा की जाए कम है।

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  2. आपकी हर टिप्पणी नई उर्जा का संचार करती है...पढ़ने और टिप्पणी करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया, सादर

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  3. कितनी सरलता से एवं स्पष्टता से आपने वर्णन किया। बहुत बहुत साधुवाद।।

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  4. सूर्य और कृष्ण का संवाद अपने आप में अद्वितीय है। कविता में दिनकर के सवालों की तार्किक प्रस्तुति ने उक्त प्रसंग को नवीन आयाम दिया है।

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