शुक्रवार, 14 मार्च 2025

शाम संग खेलूं होरी

यमुना के जल में
रंग नहीं डारो सखी...

डूबना नहीं है मुझे
रंगना है होरी सखी...

रंग, रंग डारो सखी
ऐसे नहीं टालो सखी।

रंग नहीं घोरना मुझे
रंग में है घुलना सखी !

तन से लिपटि मुझे
मन में है उतरना सखी !

घुल जाऊँ जब मैं
रंग में तेरे सखी !

उँडेल देना शाम के
सर पै मुझे सखी।

लट से लिपटि
चरणों में गिरू सखी।

अंग-अंग लग कर
शाम रंग होउ सखी...

यमुना के रंग में
रंग मत डालो सखी।

रविवार, 19 जनवरी 2025

आकाश कुम्भ


वो जानता है मुझको पर उसे मैं जानता नहीं हूं 

यही शिकायत जमाने को मुझसे हमेशा रही है 


जो करते हैं दावा जानने का सबकुछ

आईना भी उनको पहचानता नहीं है


आते हैं जाते हॅैं डूबते हैं साथ में

लेकिन कहानी सभी की अलग है


अज्ञानियों का अबूझ मेला है कुम्भ

यहां किसी को भी कोई जानता नहीं है


जिन्हें ढूंढने संगम में लगाते हो डुबकी

उन्हीं का तो कुम्भ लगा है आकाश में


वो मेरे हैं मैं उनका हूं 

ये भी तो हर कोई जानता नहीं हैं 




शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

दिल का मर्ज

नब्ज थाम कर दर्द की दवा लिख दी 

हाथ दिल पर रखता तो इलाज हो जाता


मेरा तबीब मेरा हिसाब कर देता है

नुस्खा नहीं बताता पर दिल की बात कह देता है


दिल का मर्ज दवा से दुरूस्त नहीं होता

संजीवनी  वो नज़रों से बयां कर देता है


हर मर्ज की अलग दवा देता है दवाखाना 

ये मयखाना है जो मर्ज में कोई फर्क नहीं करता 


उम्मीद...चाहत...भूख की जमींदारी है आदमी 

औकात सपनों की बंजर ज़मीन हो गई 


दावा...दुआ...टोना - टोटका आजमा लिया हूं सब

डायन नज़र तेरी, क्यों मुझेसे हटती नहीं है


क्यों हाल मेरा बार - बार पूछते हो तुम

क्या पता नहीं तुम्हें, मुझे हुआ क्या है



रविवार, 3 नवंबर 2024

डूबने दे

सतह पर सबकुछ

धुंधला है

तह पर पहले

उतरने दे

अभी डूब रहा हूं

डूबने दे


आंखें मूंद कर

देखूं तुझको

वह अंतर्यात्रा करने दे

अभी डूब रहा हूं

डूबने दे


थाह अथाह की लेने दे

राम प्यास को बुझने दे

बूंद-बूंद में राम बसे हैं

रगो में उसे उतरने दे

अभी डूब रहा हूं

डूबने दे


राम रंग है

चढ़ा बदन पर

ह्रदय में उसे उतरने दे

रग में राम

बहते हैं कैसे

इसको जरा महसूसने दे

अभी डूब रहा हूं

डूबने दे


डूब गया हूं आकंठ राम में

अब मुझको नहीं उबरना है

समझ गया हूं माया तेरी

डूबना ही जग में उबरना है

डूबते रहना है बस मुझको

तह तक नहीं पहुंचना है....

डूब रहा हूं प्रभू मैं तुझमे

मुझको बस

अब डूबने दे...



शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

मैं रेत हूं

घुल जाऊं तो कांच हूं

टकराऊं तो चट्टान

मैं रेत हूं 

रिसता हूं तो, समय बदल देता हूं


नहर, झील, सागर से भी

नहीं बुझती प्यास मेरी

नदी की कोख से 

निकल कर भी प्यासा हूं 

मैं रेत हूं

मैं सिर्फ अश्क पीता हूं


मुझमें तुम अपनी पहचान मत ढूंढ़ों

समय पर अपने पांवों के निशान मत ढूंढ़ो

बहुत दूर तक पांव भी चलते नहीं साथ में

तुम रेत पर अपने सफर का मकां मत ढूंढ़ों


रेत की आंखों में आज की चमक होती है

वो पीठ पर इतिहास का बोझ नहीं ढोते

आंधी, तुफान, बवंडर का डेरा है रेत में

मुट्ठी में रेत, इसीलिए कभी कैद नहीं होते






रविवार, 29 सितंबर 2024

पाक़ नज़र

 

अंधों के शहर में क़ातिल मुस्कान लिए फिरते हैं

आंखवालों के शहर को श्मसान बना रखा है


हर क़त्ल में खून के निशान नहीं होते

मुस्कुरा के मार देना भी गुनाह है


हिज़ाब कारगर सजा नहीं इस गुनाह की

पर्दे के पीछे भी हमने कई क़त्ल होते देखे हैं


अनगिनत गुनाह किए हैं इस हिज़ाब ने जनाब

देखते हैं मुस्कुराते हैं और पर्दा डाल देते हैं


इस मौत से बचने का एक ही इलाज है बस

बेहिज़ाब चेहरों पर नज़रे अपनी पाक रखिए



शनिवार, 21 सितंबर 2024

औकात चांद की

मां की हंसी पर सैंकड़ों चांद कुर्बान

तू पहला नहीं अपने पर इतराने वाला


मेरा सफर मेरे रास्तों से लंबा है

चांद कदमों में है...घर, मां से दूर


मैं खुद से अपनी बातें करता हूं

कोई दूसरा नहीं मुझे जानने वाला


ऐ चांद तुझे तेरी औकात बता देंगे 

धरती पे आ अपनी मां से मिला देंगे


चमकता बहुत है रात में तारों संग

जगो तो सूरज से सामना करा देंगे


कहानियां सब हैं झूठी तेरी

मिलो कभी तो आईना दिखा देंगे