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क्रमशः ...
क्रमशः ... हम अपनी जिंदगी की किताब के पन्ने खुद लिखते हैं, संजोते हैं । हर कोई कुछ लिख चुका है...कुछ लिख रहा है और कुछ लिखा जाना अभी बाकी है । किताब के पूरा होने तक यह क्रम यूं ही जारी रहेगा ।
शुक्रवार, 14 मार्च 2025
शाम संग खेलूं होरी
रविवार, 19 जनवरी 2025
आकाश कुम्भ
वो जानता है मुझको पर उसे मैं जानता नहीं हूं
यही शिकायत जमाने को मुझसे हमेशा रही है
जो करते हैं दावा जानने का सबकुछ
आईना भी उनको पहचानता नहीं है
आते हैं जाते हॅैं डूबते हैं साथ में
लेकिन कहानी सभी की अलग है
अज्ञानियों का अबूझ मेला है कुम्भ
यहां किसी को भी कोई जानता नहीं है
जिन्हें ढूंढने संगम में लगाते हो डुबकी
उन्हीं का तो कुम्भ लगा है आकाश में
वो मेरे हैं मैं उनका हूं
ये भी तो हर कोई जानता नहीं हैं
शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024
दिल का मर्ज
नब्ज थाम कर दर्द की दवा लिख दी
हाथ दिल पर रखता तो इलाज हो जाता
मेरा तबीब मेरा हिसाब कर देता है
नुस्खा नहीं बताता पर दिल की बात कह देता है
दिल का मर्ज दवा से दुरूस्त नहीं होता
संजीवनी वो नज़रों से बयां कर देता है
हर मर्ज की अलग दवा देता है दवाखाना
ये मयखाना है जो मर्ज में कोई फर्क नहीं करता
उम्मीद...चाहत...भूख की जमींदारी है आदमी
औकात सपनों की बंजर ज़मीन हो गई
दावा...दुआ...टोना - टोटका आजमा लिया हूं सब
डायन नज़र तेरी, क्यों मुझेसे हटती नहीं है
क्यों हाल मेरा बार - बार पूछते हो तुम
क्या पता नहीं तुम्हें, मुझे हुआ क्या है
रविवार, 3 नवंबर 2024
डूबने दे
सतह पर सबकुछ
धुंधला है
तह पर पहले
उतरने दे
अभी डूब रहा हूं
डूबने दे
आंखें मूंद कर
देखूं तुझको
वह अंतर्यात्रा करने दे
अभी डूब रहा हूं
डूबने दे
थाह अथाह की लेने दे
राम प्यास को बुझने दे
बूंद-बूंद में राम बसे
हैं
रगो में उसे उतरने दे
अभी डूब रहा हूं
डूबने दे
राम रंग है
चढ़ा बदन पर
ह्रदय में उसे उतरने दे
रग में राम
बहते हैं कैसे
इसको जरा महसूसने दे
अभी डूब रहा हूं
डूबने दे
डूब गया हूं आकंठ राम में
अब मुझको नहीं उबरना है
समझ गया हूं माया तेरी
डूबना ही जग में उबरना है
डूबते रहना है बस मुझको
तह तक नहीं पहुंचना
है....
डूब रहा हूं प्रभू मैं
तुझमे
मुझको बस
अब डूबने दे...
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024
मैं रेत हूं
घुल जाऊं तो कांच हूं
टकराऊं तो चट्टान
मैं रेत हूं
रिसता हूं तो, समय बदल देता हूं
नहर, झील, सागर से भी
नहीं बुझती प्यास मेरी
नदी की कोख से
निकल कर भी प्यासा हूं
मैं रेत हूं
मैं सिर्फ अश्क पीता हूं
मुझमें तुम अपनी पहचान मत ढूंढ़ों
समय पर अपने पांवों के निशान मत ढूंढ़ो
बहुत दूर तक पांव भी चलते नहीं साथ में
तुम रेत पर अपने सफर का मकां मत ढूंढ़ों
रेत की आंखों में आज की चमक होती है
वो पीठ पर इतिहास का बोझ नहीं ढोते
आंधी, तुफान, बवंडर का डेरा है रेत में
मुट्ठी में रेत, इसीलिए कभी कैद नहीं होते
रविवार, 29 सितंबर 2024
पाक़ नज़र
अंधों के शहर में क़ातिल मुस्कान लिए फिरते हैं
आंखवालों के शहर को श्मसान बना रखा है
हर क़त्ल में खून के निशान नहीं होते
मुस्कुरा के मार देना भी गुनाह है
हिज़ाब कारगर सजा नहीं इस गुनाह की
पर्दे के पीछे भी हमने कई क़त्ल होते देखे हैं
अनगिनत गुनाह किए हैं इस हिज़ाब ने जनाब
देखते हैं मुस्कुराते हैं और पर्दा डाल देते हैं
इस मौत से बचने का एक ही इलाज है बस
बेहिज़ाब चेहरों पर नज़रे अपनी पाक रखिए
शनिवार, 21 सितंबर 2024
औकात चांद की
मां की हंसी पर सैंकड़ों चांद कुर्बान
तू पहला नहीं अपने पर इतराने वाला
मेरा सफर मेरे रास्तों से लंबा है
चांद कदमों में है...घर, मां से दूर
मैं खुद से अपनी बातें करता हूं
कोई दूसरा नहीं मुझे जानने वाला
ऐ चांद तुझे तेरी औकात बता देंगे
धरती पे आ अपनी मां से मिला देंगे
चमकता बहुत है रात में तारों संग
जगो तो सूरज से सामना करा देंगे
कहानियां सब हैं झूठी तेरी
मिलो कभी तो आईना दिखा देंगे